विपक्षी कुनबे की टूट: कांग्रेस की नीतियों पर सवाल
- Alok Kumar
- 1 जुल॰ 2024
- 3 मिनट पठन

लोकसभा अध्यक्ष पद पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के घमासान के बाद नवनिर्वाचित लोकसभा अध्यक्ष द्वारा आपातकाल की निंदा के लिए प्रस्तुत प्रस्ताव पर कांग्रेस और उनके तथाकथित सहयोगी दलों के बीच आंतरिक विरोध स्पष्ट रूप से सामने आया।
आरंभिक संसदीय राजनीति से न केवल विपक्षी कुनबे का बिखराव स्पष्ट हुआ, बल्कि यह भी स्पष्ट हो गया कि ना तो मोदी बदलने वाले हैं और ना ही राहुल गांधी।
चुनाव परिणाम के बाद से ही विपक्ष द्वारा यह एजेंडा चलाया जा रहा था कि भाजपा को अकेले दम पर स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के कारण अब मोदी अपने सहयोगियों की दया पर सरकार चलाएंगे और अत्यंत ही कमजोर प्रधानमंत्री साबित होंगे। परंतु मंत्रिमंडल के गठन, मंत्रालयों के बंटवारे से लेकर नवनिर्वाचित लोकसभा में प्रधानमंत्री के भाषण से विपक्षी एजेंडा ध्वस्त हो गया। रही-सही कसर लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव तथा चुनाव के पश्चात आपातकाल की निंदा के लिए प्रस्तुत प्रस्ताव पर विपक्षी कुनबे के बिखराव से पूरी हो गई।
यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि विपक्षी कुनबे में बिखराव की वजह क्या है? कांग्रेस को छोड़कर सभी राजनीतिक दल आपातकाल का विरोध करते हैं। लोकसभा अध्यक्ष द्वारा आपातकाल की निंदा के प्रस्ताव का विरोध कर कांग्रेस ने खुद को कटघरे में खड़ा कर लिया। कांग्रेस और राहुल गांधी यह कैसे सोच सकते हैं कि मोदी विरोध के नाम पर उन्होंने कुछ राज्यों में साथ-साथ चुनाव लड़ लिया है, परंतु वे दल जो कभी आपातकाल से उत्पीड़ित हुए हैं, इस मुद्दे पर कांग्रेस का साथ देंगे।
वस्तुतः यह कांग्रेस नेतृत्व, विशेषकर राहुल गांधी की अपरिपक्वता का परिचायक है। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि इस मुद्दे पर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, ममता बनर्जी की टीएमसी, और स्टालिन की डीएमके ने अपने आप को कांग्रेस से अलग कर लिया।
चुनाव के पहले भारत जोड़ो यात्रा, न्याय यात्रा से कांग्रेस पार्टी यह भ्रम फैला रही थी कि अब राहुल गांधी काफी परिपक्व, जिम्मेदार और जनता के हितैषी हो गए हैं। वस्तुतः यह सारा भ्रम इसलिए फैलाया जा रहा था ताकि राहुल गांधी को बिखरे हुए विपक्षी दलों का सर्वमान्य नेता मान लिया जाए, परंतु यह संभव नहीं हो सका।
कुल मिलाकर चुनाव के बाद परिणाम यही है कि विपक्ष और उसके समस्त दल फिर से विपक्षी ही रह गए। हालांकि चुनाव के बाद कांग्रेस द्वारा यह एजेंडा जरूर चलाया गया कि मात्र 99 सीटें जीतकर जनता ने उसे ही शासन करने का मत दिया है और 240 सीटें जीतने वाली बीजेपी हार गई है। हालांकि भाजपा ने तीसरी बार सरकार बनाकर ऐसे एजेंडे को ध्वस्त कर दिया और वास्तविकता यह है कि कांग्रेस की कुछ सीटें बढ़ गई हैं और भाजपा की कुछ सीटें घट गई हैं। पहले भी भाजपा के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी और अब भी।
चुनाव परिणाम के बाद से लेकर अब तक कांग्रेस और राहुल गांधी का दृष्टिकोण ऐसा नहीं प्रदर्शित हुआ जिससे यह सिद्ध हो सके कि कांग्रेस और राहुल गांधी में यह परिपक्वता विकसित हुई हो कि वे अपने सहयोगियों से विभिन्न मुद्दों पर विचार-विमर्श कर निर्णय निर्माण की लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाएं। लोकसभा अध्यक्ष के मुद्दे पर उनके जिद्दी स्वभाव से तो यही प्रतीत होता है।
जिस प्रकार 16वीं और 17वीं लोकसभा में वे अपनी जिद और अड़ियल दृष्टिकोण से संसदीय प्रक्रिया में हमेशा बाधक की भूमिका निभाते रहे और नीतिगत आधार पर संसदीय चर्चा-परिचर्चा का मजाक उड़ाया और सड़क की राजनीति को संसद में लेकर आए, उसी राजनीति की शुरुआत उन्होंने 18वीं लोकसभा में भी की है। संसद विपक्ष के कुछ नेताओं की बंधक बन जाती है और सरकार पर तानाशाही का आरोप लगाकर विपक्ष अपने उत्तरदायित्व से खुद को मुक्त मान लेता है।
परंतु मेरा मानना है कि भारत की जनता परिपक्व है और विपक्ष की गैर-जिम्मेदार राजनीति का करारा जवाब देना जानती है।
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